कन्या गुरुकुल महाविद्यालय, हाथरस
संक्षिप्त परिचय (Introduction)
जिस समय भारत में पश्चिमी सभ्यता का बोल-बाला बढ़ रहा था और अंग्रेजी राज्य की नीव पूरी तरह जम चुकी थी। भारतवासी बुरी तरह अंधविश्वासों और रूढ़ियों के शिकार बने हुए थे। उस समय में ऋषिवर दयानन्द सरस्वती का जन्म हुआ। ऋषि ने भारत की नाड़ी परीक्षा की और अपनी दिव्य दृष्टि से स्थिति का निरीक्षण कर भारत को रूढ़ि और अन्धविश्वास से ऊपर उठाने का प्रयास किया। उन्हीं प्रयत्नो में एक प्रयत्न शिक्षा का प्रसार था। ऋषि दयानन्द प्राचीन भारतीय संस्कृति के अनन्य प्रशंसक थे। 'वेदों की ओर लौटो' उनका नारा था। महर्षि दयानन्द ने अपना समस्त जीवन वेदों की शिक्षा के प्रचार-प्रसार में समर्पित कर दिया। ऋषि ने जहाँ जीवन के अन्य क्षेत्रों में अपना सुलझा हुआ दृष्टिकोण उपस्थित किया है, वहाँ शिक्षा के क्षेत्र में भी, महत्वपूर्ण दिशा दी है| महर्षि की यह निश्चित धारणा थी कि गुरुकुल शिक्षा - प्रणाली तथा आर्ष पाठविधि ही वह मार्ग है, जिस पर चलकर मनुष्य का शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक विकास हो सकता है |
स्वामी दयानन्द जी के कर्मठ अनुयायियों ने सुधार के अन्य कार्यों के साथ शिक्षा प्रसार का बीड़ा भी उठाया और गुरुकुल एवं विद्यालय खोले। यह गुरुकुल भी उसी माला का एक मोती है।
स्थापना (Establishment)
हाथरस निवासी पं. मुरलीधर जी के हृदय में वैदिक धर्म के प्रचार एवं शिक्षा प्रसार के लिए बड़ी धनराशि दान देने की प्रबल इच्छा उत्पन्न हुई। अपने इन शुभ विचारों को उन्होनें स्वर्गीय वीतराग स्वामी दर्शनानन्द जी महाराज के सामने रखा। स्वामी जी ने कहा कि मेरी इच्छा है जिस प्रकार मैंने ब्राह्मचारियों के बहुत से गुरुकुल स्थापित किये हैं। उसी प्रकार एक कन्या गुरुकुल भी हो जाता तो अच्छा होता। स्वामी जी की यह बात पं. मुरलीधर जी के मन में समा गयी और उन्होनें कहा बहुत अच्छा महाराज आपकी इच्छा पूर्ण होगी। तदनुसार उन्होनें दो लाख रूपये की राशि इस कार्य के लिए अलग कर दी, जिसमें एक लाख भवन निर्माण के लिए तथा एक लाख रूपये गुरुकुल संचालन के लिए। एतदर्थ उन्होनें एक गाँव भी खरीद लिया और सन् 1909 में गुरुकुल की आधारशिला रख दी गई। ब्रह्मचारिणियों का प्रवेश भी कर लिया गया, परन्तु अच्छे कार्यकर्ता न मिलने से गुरुकुल का संचालन अबरुद्ध हो गया।
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